कविता, कला और विचार के केंद्र में रहने वाले अशोक वाजपेयी आज 16 जनवरी,2025 को अपने जीवन के 85वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। उनके अब तक के कविता संसार पर एक नज़र डाल रहे हैं हिंदी के सुधी कवि आलोचक व भाषाविद, डॉ ओम निश्चल का आलेख
पचासी की वय सीमा को छू लेने वाले अशोक वाजपेयी हमारी साहित्यिक गैलेक्सी के वह नक्षत्र हैं जिसकी चमक से हिंदी का साहित्य संसार भी अपने भीतर एक दमक और गमक महूसस करता है। तमाम विवादों के बीच रहते हुए और अपने समय के सवालों से रूबरू होते हुए भी वे बार बार अदब में लोकतंत्र और बहुवचनीयता की मांग करते हैं और अपने कृतित्व से उसे संपोषित करने की चेष्टाएं भी करते रहते हैं। वे साहित्य की गतिविधिबहुल आभा की केंद्रीय धुरी हैं और निजी साहित्यिक रुचियों से लेकर एक सार्वजनिक व्यक्तित्व का प्रभामंडल पा लेने के बावजूद उनमें बहुत कुछ ऐसा बचा है जिसे मनुष्यता के लिए अपरिहार्य माना जा सकता है। मानवीय मूल्य जब लगातार ध्वस्त हो रहे हों, सचाई व्यक्ति और विचार सापेक्ष हो, ऐसे में अपने मूल्यों के साथ टिके रहना, नुकसान की संभावनाओं को जानते बूझते हुए भी, यह गुण कमोवेश अशोक वाजपेयी में हैं । हालांकि उनका जीवन कभी घाटे में नहीं रहा। वह अपने संगी साथियों, लेखकों, मित्रों, विद्वानों औ युवाओं की संगत में पुनर्नवीन होता रहा है। कभी नामवर सिंह ने काशीनाथ सिंह की कहानी पढ़ कर उनसे कहा था काशी तुम बूढ़ों की संगत में न रहा करो।अशोक वाजपेयी युवाओं की संगत में रहने के अभ्यासी हैं। वे जिन बूढों से मिलते हैं, उसके भीतर के युवा चरित्र को भली भांति समझतेबूझते हैं। इसीलिए अशोक वाजपेयी में वह तत्व कम पाया जाता है जो एक नकारात्मंक किन्तु महत्वाकांक्षी व्यक्ति के भीतर लहराता मिलता है। एक नश्चर जीवन को किस तरह जिया जाना चाहिए, साहित्य में अशोक वाजपेयी उसकी एक मिसाल हैं।
अशोक वाजपेयी का व्यक्त्िात्व तमाम घटकों से बना है। वे नौकरशाह रहे, युवा कवि के रूप में कवियों के निकट आए, पत्र पत्रिकाओं में जगह बनाई, शहर एक संभावना है से वे कविता में पहचाने गए, प्रथमत: प्रेम के कोमल आवेगों के कवि के रूप में उभरे किन्तु मां पर लिखी कविताओं से उनके भीतर की करूणा को भी गहरे लक्षित किया गया । उनका कांग्रेस प्रेम सुविदित रहा लेकिन वे भारतीय कम्युनिस्टों के निशाने पर रहे। मार्क्सवादियों की जड़ता और उनकी कुपठता पर अशोक वाजपेयी बराबर चोट करते हुए। यहां तक कि अभी तक अपने को ठीक ठीक न समझेजाने का मलाल उन्हें जिनसे सबसे ज्यादा होता होगा, वे ऐसे ही तथाकथित वामपंथी कवि विचारक हैं। लेकिन उनकी कविता प्रेम के बाद सांसारिकता के अनेक मोडों मरोड़ों से गुजरती हुए जहां वह लौकिक और संसारी आभा में विरचित नज़र आती है वहीं वह पारिवारिकता, मृत्यु और अवसानजन्य दुखों को बांचने वाली और अंतत: कविता के सतत विपक्ष के पाले में होने का अहसास भी कराती रही है। उन्होंने इतना अगाध लिखा है, पद्य और गद्य दोनों कि उन्हें साधारण व्याख्याओं से नहीं समझा जा सकता न उनके ऊपरी दिखते ऐश्वर्यबोधी जीवन शैली से। वे पीनेपिलाने को एक जीवनाधिकार मानने वालेकवियों में हैं। इसीलिए उसे उन्होंने नई संज्ञा रसरंजन से अभिहित किया। उनका कविता भी मनोरंजन और विचाररंजन का समावेशी स्वरूप विकसित करती है। न तो वह बहुत अधिक प्रगतिवादियों की तरह लाउड और सब कुछ बदल देने की आकांक्षा से एकाधिकारवादी दिखती है न वह
कोपभवन के गुस्से और क्षोभ के साथ मुँह फुलाए-सी। बल्कि वह सुख में सुख और दुख में दुख को जानने समझने की जिज्ञासाओं से भरी दिखती है। हास जैसा उनके होठों पर वैसा ही उनकी कविता का भी स्वभाव है। वह देह-गेह और नेह की कविता रही तो यह प्रकृति और पुरुष के सांख्य साहचर्य के अनुकूल ही है। सौ्ंदर्य को पूरे अवबोध के साथ निहारना सौंदर्यके आलोक में विचरण करना है। सौंदर्य से मुंह मोड़ कर कवि कैसे रह सकता है।
अशोक वाजपेयी स्वभावत: कवि हैं । इसलिए उनका कवि भाव उनके स्वभाव से विरत नही है वह उसी का आत्यंतिक प्रतिबिम्ब है। इतना सारा संसार और पूंजीवादी, दार्शनिक, आध्यात्मिक और चार्वाकवादी दुनिया देखने के बाद भी उनकी कविता ऐश्वर्य के पक्ष में नहीं किसी मजलूम के पक्ष में आवाज उठाती हुई लग सकती है, वह सांप्रदायिकता के खेल को निरावृत करने में कविता और विचार दोनों का सहारा ले सकती है, लेती है। विचार की गझिनता उनके गद्य में दिखती है तो संवेदना और अनुभूति का विन्यास उनकीकविताओं में । किन्तुउनकी कविता भाषा के चाकचिक्य की कविता भी रही है, उसे देखकर यह लग सकता है कि यह भाषा भव्यता के बीच विकसित हुई है, यह कवि की अपनी उपार्जित भाषा है। इसलिए अध्यात्म की प्रचलित सरणियों से हट कर वे कविता को भी भाषा का अध्यात्म मानने वाले कवियों में हैं।
अशोक वाजपेयी की कई खंडों की रचनावली जब 2022 में आई तो यद्यपि उस पर बहुत बात नहीं हुई । किन्तु इस रचनावली का हर खंड –काव्य, विचार और कलात्मक चिंतन की दृष्टिसे समृद्ध और सारभूत है। हर मौके पर यानी, साहित्य, राजनीति, धर्म, संस्कृति, सत्ता, पूंजी, सांप्रदायिकता और हमारे जीवन और चरित्र को प्रभावित करने वाली अपने समय की हर जरूरी बहस में शरीक उनकी कविता और वैचारिकी को सदैव भले ही एक नाराज़ आदमी का प्रत्याख्यान माना जाए पर अपने समय में प्रगतिशील चिंतन का वह एक जागरूक बयान है। अपने अभिजात चिंतन के बावजूद कला, साहित्य, समाज, संस्कृति और पाश्चात्य चिंतन और लेखन को वे अपने अध्ययन मनन और चिंतन का अंग बनाते रहे हैं और उसे नट शेल में जनता के सामने रखते आए हैं। ‘कभी कभार’ का उनका कालम उनके सतत चिंतन और अभिव्यक्ति का पर्याय ही बनता गया है जो यह बताता है कबीर ने जैसे आंखिन देखी का संसार अपने काव्य में दर्ज किया, वही काम अशोक वाजपेयी अपने सार्वजनिक स्तंभ कभी कभार में करते हैं। वह कबीर की तरह भले उतने तीखे तल्ख न हों, उनकी जीवनशैली कबीर की तरह फटेहाल न हो किन्तु अपनी वैचारिक दृढ़ता को यथासंभव कायम रखते हैं। वे राजनीतिक आग्रहों के कवि नहीं हैं किन्तु उनकी चेतना दृश्य जगत के हर पहलू, विडबंना और विचलन को सूक्ष्म भाषा में दर्ज करती है।
वे अपार कविता संसार के स्वामी हैं। अब तक डेढ़ दर्जन संग्रह उनके खाते हैं,और एक दर्जन चयन भी होंगे। लेकिन कवि हमेशा अपनी कवि प्रतिभा से पहचाना जाता है, कविता के परिमाण से नहीं। लेकिन अशोक वाजपेयी का कविता संसार विपुल भी है और मानीखेज़ भी है। वह प्रकृति का केवल द्रष्टा नहीं है, वह केवल दृश्यों का उपभोक्ता नहीं है, वह उसका क्रिटिक भी है, उसका समालोचक भी है, उससे प्रतिकृत भी है। वह प्रकृत्या विपरीत ध्वनियों का आलोचक भी है। कवि तो अपने मनोराज्य में रहता है। वह किसी के अधीन नहीं। अशोक वाजपेयी भी अपने प्रतिसंसार के कवि हैं। उनके यहां आलोचना तो है पर भीनी भीनी सी। उनकी कविता न तो इतनी नकारात्मक है न इतना विनयी। हां अपनी आसक्तियों के प्रति वह विनयी भी है। अपनी अवधारणाओं की वह हामी है।
पहला संग्रह उनके प्रेम का संग्रह था। शहर अब भी संभावना है। संभावना ही जीवन का नाम है। वह प्रेम का नाम हो तो और भी अच्छा। ये वे दिन थे, वह दौर था जब वे चंचल तितलियों के पीछे भागते फिरते थे शब्दोंकी टोह
में। शब्द तब कविता में बार बार आ रहे थे। जैसे शब्द में ही मुक्ति है। इसी में कविता की युक्ति भी है। वे लिखते हैं —
लौटेंगे हम
तितलियों की तरह नयेशब्द लिये
और ये लोग
यह धूप
ये सड़कें
ये दृश्य
डूब जायेंगे शाम के एक मद्धिम संगीत में
इम लौटेंगे …..!(अशोक वाजपेयी रचनावली-1, पृष्ठ 60)
उनकी कविताएं सांसारिकता का परित्याग नहीं करतीं । वे माया को ठगिनि कहने वाली कविताएं नहीं हैं। वे माया की काया में रमने वाली कविताएं हैं। तभी तो कभी अज्ञेय ने कहा था– तुम्हारी देह मुझको कनकचंपे सी कली है/ दूर से ही स्मरण में गंध देती है और इसी प्रतीति को अशोक वाजपेयी कहते हैं कि तेरे स्मरण का असीम सुख मुझे / कांटा भी फूल आया मेरे बगीचे। यह स्मरण: नागफनी कविता है। नागफनी के फूल भी रोमैंटिक से लगने लगते हैं जब आप प्रेम में होते हैं। प्रेममय संसार में होते हैं। यह रागात्मकता उनमें प्रचुर है जो अलौकिकता का कोई ओढ़ा हुआ बाना नहीं धारण करती है। वह सामान्य मनुष्य की तरह ही अपनी वासना को अनिंद्य और पवित्र मानती है। क्या ही खूब कि ऐसे ही समयों में भारती जी लिख रहे होंगे — न हो यह वासना तो जिन्दगी की माप कैसे हो। यों तो प्रेम के आलंबना और उद्दीपन तो कवि को समृद्घ और रचनाप्रेरित करते ही हैं, प्रकृति भी कम रोमांसकारी अनुभव और प्रतीतियां नहीं देती। यह द्रष्टा को आमूल बदल देती है। उसे भी प्रकृतिमय कर देती है। एक पतंग अनंत में– संग्रह की यह कविता क्या ही गुल खिला रही है जो धूप में सौंदर्य को एक युवा शब्द के रूप में देख रही है —
हवा डूबी हुई है
एक नीली, आर्द्र सुंदरता में
और धूप ने अभी-अभी
विस्मय से
अपने सुकुमार होने का पहचाना है
कविता से बहुत दूर
खिली हुई वह
एक युवा शब्द है। (एक पतंग अनंत में, रचनावली-1, पृ्ष्ठ123)
प्रेम, प्रतीक्षा, संयोग, प्रीति और रसानुभूति के बिम्ब चुनने में अशोक वाजपेयी की कविता शुरु ही पटु रही है। वह गीतिमय तो नही है किन्तु उसकी अंतर्वस्तु में गीतात्मक आभा है। मैंने कभी कहा था कि अशोक वाजपेयी की प्रकृति और प्रेम की कविताओं को गीतिपरकता के साथ सहेज दिया जाए तो तनिक से प्रयास से यह नवगीत का कायांतरण हो सकती है। क्योंकि यह मधुर संभाषण का पर्याय लगती है–कांतासम्मित-सी। प्रतीक्षा में सुबह का वक्त भी कितना रोमांचकारी हो सकता है, इसे उन्होंने आओगी शीर्षक कविता में रचा है ।
एक सुंदर सी पीली चिड़िया वहां घास पर फुदक रही है ठीक
वैसे ही जैसे तुम हो सुंदर नीरव और प्यार को घास की तरह
धीरे धीरे पहचानती और उसमें अपने लिए अर्थ खोजती (वही, रचनावली-1, पृष्ठ 151)
अशोक वाजपेयी प्रकृति के शाश्वत प्रेमी जान पड़ते हैं। वे कविता की पृष्ठभूमि को पेड़ पल्लव चिड़ियों, वनस्पतियों इत्यादि से सजाते हैं । तब उन्हें भाषा भी हरी पियरी और शब्द भी पल्लव शब्द से दीखते हैं। तब पृथ्वी भी बच्ची की तरह उन्हें न जाने किस बरगद, किस पीपल किस इमली के नीचे खेल कर आई नटखट सी लगती है। हरियाली खिड़की के बाहर दीप्त लगती है और सबेरा भी एक पत्ती के आघात से होता है। सौंदर्य के उपमेय और उपमान अशोक वाजपेयी के यहां सघन और संश्लिष्ट रूप में अनेक व्यंजनाओं के रूप में आए हैं। इस पृथ्वी को निरखते परखते हुए ही वे सुंदरता को महसूस कर पाते हैं : क्योंकि तुम हो — आकाश भर जाता है/ बच्चों की किलक से / और पृथ्वी/ फूलों और फलों से/ क्योंकि तुम हो। (अगर इतने से, रचनावली, पृष्ठ 189) दूब, पृथ्वी,आकाश, पक्षी, गिलहरी, हवा, बारिश, हरियाली, धूप, सूर्योदय, गोधूलि, नक्षत्र, चंद्रमा,सूर्य, तारों से भरा आकाश, पारिजात और मौलश्री के फूल, अलसायी हुई आम्र मंजरियां,ओस की बूंद, चिड़ियां पर्यावरण और पारिस्थितिकी के इतने सारे प्रतीक, कि वे प्रकृति में आपादमस्तक डूबे हुए कवि लगते हैं। वे पोर पोर में इस पृथ्वी की चहक महसूस करते हैं :
पृथ्वी लिखती है पृथ्वी को
न कविता की तरह
न कथा की
एक अबूझ शब्द की तरह
पृथ्वी लिखती है पृथ्वी को।
पृथ्वी चहकती है पृथ्वी पर
न चिड़िया की तरह
न तितली की,
एक अकथ आह्लाद की तरह
पृथ्वी चहकती है (अगर इतने से, रचनावली-1, पृष्ठ 196)
उनकी कवि संवेदना में अंत भी है , आरंभ भी, अथ भी है, इति भी, पृथ्वी भी है, आकाश भी, जीवनकाल में परिजनों के असमय अवसान से दग्ध कवि मन भी, अकिंचन प्रेम को संभाले जीवन में सौंदर्य, सुरुचि, कलात्मकता, विनयशीलता, प्रसन्नता और रचनात्मकता के ठीहे तलाशता जीवन में प्रेम और कविता-कला के लिए जगह बनाने की जुगत भिड़ाता कवि भी। यही कुछ है कि वह आश्वस्त होकर कह पाता है कि —
सब कुछ नष्ट नहीं होगा
कुछ तो बच ही जाएगा।
…….
सब चले जाएंगे
सुख-दुख, धैर्य और लालच
सुंदरता और पवित्रता
पर प्रार्थना के अंतिम अक्षय शब्द की तरह
बची रह जाएगी कामना ।
शायद यह कामना ही जीवन का दूसरा नाम है। जैसे वे प्रेम को उम्मीद का दूसरा नाम कहते हैं। उनकी स्मृतियों में राजापुर गढ़ेवा, सागर, वहां का चौगान, आंगन, दौआ बाबा सहित अन्य पारिवारिक जन, दोस्त, भोपाल और प्रारंभ में छोटी जगहों पर रहने की यादें समाई हुई हैं। इस अर्थ में वे जरा नास्टेल्जिक से दिखते हैं जब ऐसा जिक्र सामने आता है । पर वे सायास न तो अपने को गंभीरता के फ्रेम में सजाए फिरते हैं न नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव में आते हैं। एक हँसती खिलखिलाती आभा में उनका व्यक्तित्व अपने भीतर जैसे बचपन का सारा उल्लास सहेजे हुए है। और भले वे इस विश्वास से लदे फँदे रहें कि कुछ तो बच ही जाएगा पर यह कुछ और नहीं। वह वही है — हम सबमें थोड़ा सा आदमी—जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता/ गवाही देने से नहीं हिचकता/ धोखा खाने के बावजूद प्रेम करते रहने से नहीं चूकता। यही थोड़ा सा आदमी बचाने की चिंता से भरी उनकी कविताएं हैं। कभी कुंवर नारायण ने भी तो यही कहा था । तमाम तरहों से कम होता जा रहा हूँ। बच सकेगा तो शायद बचा रह जाऊँ– जरा सा कवि, जरा सा मनुष्य। भाव यही है, शब्द कुछ और हो सकते हैं। यह ज़रा सा मनुष्य बचा लेने की चाहत कितनी बड़ी है । जहां मनुष्यता पूंजीवाद की पीठिका पर बैठी दुनिया की सबसे नगण्य प्राथमिकताओं में हो,वहां अपने भीतर के जरा से मनुष्य को बचा लेने की चाहत कोई कम नहीं है। अशोक वाजपेयी की भी चाहत उस थोडे से आदमी को बचा लेने की है जो मनुष्यता के मानक पर अब भी खरा है। मॉं पर प्रारंभ के संग्रह में कुछ कविताएं और अरसेबाद फिर मां पर लिखी कविता : दिवंगत मॉं के नाम पत्र में क्या मार्मिक सी संवादमयता है। मॉं पर लिखी तमाम कविताओं में यह कविता अविस्मरणीय है। अपनी अभिजात सौंदर्य संवेदना के बावजूद उन्हें यह कहने में फख्र महसूस होता है कि ” मुझे चाहिए बीतने वाली नहीं खिलनेवालीधूप / प्रार्थना नहीं पुकार/ चुप्पी नहीं चीख/ सिसकियां,आंसू, हँसी / मुझे ऐश्वर्य नहीं, शब्द चाहिए। (आविन्यों, रचनावली-1, पृष्ठी471)
अशोक वाजपेयी ने विपुल लिखा है जिसका मूल्यांकन अभी नहीं हुआ है। प्रेम की कविताएं लिख भर देने से उन्हें नामवर जी देह और गेह का कवि कह कर पुकारा, लेकिन वे प्रेम को एक बड़ा जीवन मूल्य मानने वाले कवियों में निकले जो शायद प्रेम कविताओं की गिरह खोलते हुए बच्चन की शैलीमें कह रहे थे — मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता।सो सब कुछ प्रकट । जीवन और समाज व समय के सम्मुख। लगातार वे कविता के रथी बने रहे। कविताएं लिखते रहे, बहस करते रहे, समाज को जगाते रहे, कला साहित्य और संगीत की महफिलें सजाते रहे। जिसकी सबसे कम समाज को जरूरत रह गयी है, उस कविता के लिए लहूलुहान होते रहे –कुछ इस तरह से जैसे कविता ही उनकी जिजीविषा का पर्याय हो। अपने उत्तर जीवन में उन्होंने कुछ सख्त फैसले किए। सांप्रदायिकता के विरोध में खड़े हुए। कविताएं लिखीं, सभाएं आयोजित कीं। प्रतिरोध की कलात्मक अभिव्यक्तियों को प्रश्रय और मंच दिया। उत्तर जीवन के उनके कुछ कविता संग्रह ऐसे उत्तर औपनिवेशिक लेकिन पूंजीवादी और सांप्रदायिक समय में धारदार अभिव्यक्ति के साथ सामने आए। कुछ रफू कुछ थिगड़े, इबारत से गिरी मात्राएं, दुख चिट्ठी रसा है, कहीं कोई दरवाज़ा, नक्षत्रहीन समय में, कम से कम और नवीनतम संग्रह अपना समय नहीं। अधिकांश संग्रहों पर लिख चुका हूँ ; लिखता रहा हूँ और उनके कवित्व से प्रतिकृत भी।
‘कम से कम’ में उन्होंने लिखा: ” लिखो कि अपनी गवाही दर्ज करा सको/ और कह सको बना आंख झपकाए/ कि वारदात के समय तुम चुपचाप देख भर नहीं रहे थे। ” इस बीच में हाल ही कुछ वर्षों में उनका एक अच्छा संग्रह ‘थोडा सा उजाला’ आया और नवीनतम ‘अपना समय नहीं’ । इस संग्रह की कविताएं अपने समय का अग्रलेख हैं। उनकी कविता में जहां शुरुआत में उनका अपना समय बोलता था, निज बोलता था, अब सार्वजनिक समय बोलता
है। हमारे समय की नृशंसता बोलती है। लेकिन एक ऐसी प्रत्याशा भी बिम्बित होती है जो कविताओं की छन्नी से छन कर हमारे अंत:करण और आत्मा के गलियारे को रोशन करती है। उनके ये शब्द इस बात की गवाही देते जान पड़ते हैं —
हम फिर भाषा के दरवाजे पर खड़े हैं
इस नृशंस समय के लिए हमें शब्द चाहिए
ऐसे जिनमें मानवीय हाथों की छापें हों
संग साथ की गर्माहट
बच्चों की हँसी की कोमलता
विलाप का मर्म दुख की आहटें
और सुख की थपकी हो
ऐसे शब्द जिसे दूसरे भर नहीं
नदियां पर्वत वृक्ष और फूल पशु पक्षी
सूर्यास्त और चंद्रोदय भी समझ सकें
हम फिर भाषा के दरवाज़े पर ख़ड़े हैं (अपना समय नहीं)
अंतत: कवि के लिए भाषा और शब्द ही वह अक्षय स्रोत है जो कभी भी व्यय नहीं होता। उसका आगार सदैव भरा ही रहता है। कविता को भाषा का अध्यात्म मानने वाले अशोक वाजपेयी के लिए यह समय वैसा ही है, जैसा मुक्तिबोध अपने समय में समय को देख सुन रहे थे। अंत:करण का आयतन संक्षिप्त न होता तो वे जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के विरुद्ध मुहिमबद्ध न होते, न यह दुनिया जैसी भी हो, इससे बेहतर चाहिए की उम्मीद में होते। लेकिन ऐसा ही समय है तभी केदारनाथ सिंह को कहना पड़ा : ” जहां तक देखता हूँ तल में कचरा ही कचरा नजर आता है/ चलाना चाहिए अंत:करण के गलियारे में एक सुदीघ्र स्वच्छता अभियान। ” अशोक वाजपेयी कहते हैं : पृथ्वी पर उम्मीद कम हो रही है। बरसों पहले कैलाश वाजपेयी ने लिखा: भविष्य घट रहा है। बात एक ही है। कहने का अंदाज ए बयां अलग अलग है। बार बार हताशा और नाउमीदी में भी हार न मानने वाली जिजीविषा के वशीभूत होकर ही वे फिर कहते हैं — ”लिखो कि उम्मीद लिखी जाकर ही/ सपना,और सपना लिखा जाकर ही / सचाई बन जाता है। ” अशोक वाजपेयी इसी हिचकोले खाती उम्मीद और सचाई के कवि हैं और धीरे धीरे वे संज्ञा के साथ साथ सुरुचि, कलात्मकता और साहित्यिक शुचिता के विशेषणों में बदल चुके हैं।